आलोचना >> समय और साहित्य समय और साहित्यज्योतिष जोशी
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सत्य क्या है और उसका स्वरूप क्या हैय यह हमेशा एक पहेली की तरह रहा है। सबने तरह–तरह की व्याख्याएँ की हैं। गाँधी की दृष्टि में यह स्पष्ट है कि जनता इस सत्य को जानती है। उनके लिए सत्य का स्वरूप है। विचार सत्य, वाणी सत्य तथा समस्त आचरण एवं कार्यों में सत्य। यह चाहे जितना कठोर हो, जितना दुष्कर और चाहे जितना दुर्गम, इसका पालन व्यक्ति का लक्ष्य होना चाहिएय क्योंकि यही वह मार्ग है, जो मानव को मानवोत्तम बना सकता है और जगत का कल्याण भी इसी से सम्भव है। यह गाँधी की आस्तिकता है, ईश्वर में अगाध विश्वासय जो कभी ईश्वर को सत्य मानता है तो कभी सत्य को ईश्वर। यह सत्य ईश्वर की अनुभूति से प्रतिक्षण आश्वस्ति देता है। ‘सर्व–धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’, इससे भिन्न नहीं है। धर्म है तो उसी एक सत्य में है, जिसमें अपना कुछ नहीं है और हमारा सारा कर्म जगत के लिए समर्पित है। सत्य की कोई दूसरी परिभाषा नहीं हो सकती और न ही ईश्वर की पहचान की कोई दूसरी युक्ति। इस सत्य को गाँधीजी ने जिया और अपने आचरण से इसे चरितार्थ किया। उनका जीवन सत्य–प्राप्ति की चेष्टा की सतत् साधना करता रहा और उससे निर्धारित कर्म मानवोत्तम सिद्धि का अनुष्ठान। सत्य साथ है तो किसी भी तरह का भेद नहीं है। सत्य की अनुभूति में परम कृतार्थता का बोध ही श्रेयस्कर है। सत्य का प्रतिक्षण ज्ञान न होना बाधा है। क्योंकि वह अज्ञान से उपजती है। यही सत्य मनुष्य मात्र का कर्त्तव्य बन जाता है और समाज के लिए जो कुछ भी प्रस्तुत दायित्व है, वह उसका इष्ट होता है।
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